أيهـا الشـعبُ!
ليتنـي كـنتُ حطَّابـا |
فــأُهْوي عــلى
الجـذوع بفأسـي! |
ليتنــي كـنتُ
كالسـيولِ، إذا سـالت |
تهــدُّ
القبــورَ: رمسًــا بـرمسِ! |
ليتنــي كــنتُ
كالريـاح، فـأطوي |
كــلّ مـا يخـنق
الزهـور بنحسـي! |
ليتنــي كــنتُ
كالشــتاء، أُغَشِّـي |
كــلّ مـا أذبـلَ
الخـريفُ بقرسـي! |
ليـت لـي قـوّةَ
العـواصفِ، يا شعبي |
فـــأُلقي إليــك
ثــوْرَةَ نفســي! |
ليـت لـي قـوةَ
الأعاصيرِ، إن ضجَّتْ |
فـــأدعوك
للحيـــاة بنبســـي! |
ليـت لـي قـوةَ
الأعـاصيرِ..! لكـن |
أنـت حـيٌّ، يقضـي
الحياة برمسِ..! |
أنــت رُوحٌ
غَبِيَّــةٌ، تكـره النُّـورَ |
وتقضِــي الدهـورَ
فـي ليْـل مَلسِ.. |
أنـت لا تـدرك
الحقـائق، إن طـافتْ |
حـــواليك، دون مس
وجـــسِّ... |
فـي صبـاح الحيـاة
ضَمَّخْـتُ أكوابي |
وأترعتُهـــا
بخـــمْرةِ نفســي... |
ثــمّ قدّمتُهــا
إليــكَ، فــأهرقْتَ |
رحـيقي، ودُسْـتَ
يـا شـعبُ كأسي! |
فتــألّمْتُ...،
ثُــم أسـكتُّ آلامـي، |
وكفكــفتُ مــن
شـعورِي وحسـي |
ثــم نضــدْتُ مـن
أزاهـيرِ قلبـي |
باقــةً لــمْ
يَمَسَّــها أيُّ إنْسِــي.. |
ثـــم قدّمتُهــا
إليــك، فمــزّقْتَ |
ورودي،
ودُســـــــتَها أيّ دوسِ |
ثــم ألبســتَني
مـن الحـزنِ ثوبًـا |
وبشــوك الجبــالِ
توّجـتَ رأسـي |